Eighteenth Chapter अष्टादश अध्याय

Ashtavakra Gita | अष्टावक्र गीता – Eighteenth Chapter | अष्टादश अध्याय

अष्टावक्र गीता(मूल संस्कृत)अष्टावक्र गीता(हिंदी भावानुवाद)Ashtavakra Gita (English)
अष्टावक्र उवाच –
यस्य बोधोदये तावत्-
स्वप्नवद् भवति भ्रमः।
तस्मै सुखैकरूपाय
नमः शान्ताय तेजसे॥१८- १॥
अष्टावक्र कहते हैं – जिस बोध का उदय होने पर, जागने पर स्वप्न के समान भ्रम की निवृत्ति हो जाती है, उस एक, सुखस्वरूप शांत प्रकाश को नमस्कार है ॥१॥Ashtavakra says – Salutations to the One, blissful, serene light like awareness which removes delusion like a dream . ॥ 1 ॥
अर्जयित्वाखिलान् अर्थान्
भोगानाप्नोति पुष्कलान्।
न हि सर्वपरित्याजम-
न्तरेण सुखी भवेत्॥१८- २॥
जगत के सभी पदार्थों को प्राप्त  करके कोई बहुत से भोग प्राप्त कर सकता है पर उन सबका आतंरिक त्याग किये बिना सुखी नहीं हो सकता ॥ २ ॥One may indulge in all sorts of pleasure by acquiring various objects of enjoyment, but one cannot be truly happy without their inner renunciation. ॥ 2 ॥
कर्तव्यदुःखमार्तण्डज्वाला
दग्धान्तरात्मनः।
कुतः प्रशमपीयूषधारा-
सारमृते सुखम्॥१८- ३॥
जिसका मन यह कर्तव्य है और यह अकर्तव्य आदि दुखों की तीव्र ज्वाला से झुलस रहा है, उसे भला कर्म त्याग रूपी शांति की अमृत-धारा का सेवन किये बिना सुख की प्राप्ति कैसे हो सकती है ॥३॥How can there be happiness, for one whose mind is burnt by the intense flame of what to be done and what not to be done . How can one attain bliss of the nectar-stream of peace without being desire-less ? ॥ 3 ॥
भवोऽयं भावनामात्रो
न किंचित् परमर्थतः।
नास्त्यभावः स्वभावनां
भावाभावविभाविनाम्॥१८- ४॥
यह संसार केवल एक भावना मात्र है, परमार्थतः कुछ भी नहीं है । भाव और अभाव के रूप में स्वभावतः स्थित पदार्थों का कभी अभाव नहीं हो सकता ॥४॥This existence is just imagination. It is nothing in reality, but there is no non-being for natures that know how to distinguish being from non being . ॥ 4 ॥
न दूरं न च संकोचाल्-
लब्धमेवात्मनः पदं।
निर्विकल्पं निरायासं
निर्विकारं निरंजनम्॥१८- ५॥
आत्मा न तो दूर है और न पास, वह तो प्राप्त ही है, तुम स्वयं ही हो उसमें न विकल्प है, न प्रयत्न, न विकार और न मल ही ॥५॥The realm of one’s own self is not far away, and nor can it be achieved by the addition of limitations to its nature. It is unimaginable, effortless, unchanging and spotless . ॥ 5 ॥
व्यामोहमात्रविरतौ
स्वरूपादानमात्रतः।
वीतशोका विराजन्ते
निरावरणदृष्टयः॥१८- ६॥
अज्ञान मात्र की निवृत्ति और स्वरुप का ज्ञान होते ही दृष्टि का आवरण भंग हो जाता है और तत्त्व को जानने वाला शोक से रहित होकर शोभायमान हो जाता है ॥६॥By the simple elimination of delusion and the recognition of one’s true nature, those whose vision is unclouded live free from sorrow . ॥ 6 ॥
समस्तं कल्पनामात्र-
मात्मा मुक्तः सनातनः।
इति विज्ञाय धीरो हि
किमभ्यस्यति बालवत्॥१८- ७॥
सब कुछ कल्पना मात्र है और आत्मा नित्य मुक्त है, धीर पुरुष इस तथ्य को जान कर फिर बालक के समान क्या अभ्यास करे? ॥१७॥Knowing everything as just imagination, and himself as eternally free, how should the wise man behave like a fool ? ॥ 7 ॥
आत्मा ब्रह्मेति निश्चित्य
भावाभावौ च कल्पितौ।
निष्कामः किं विजानाति
किं ब्रूते च करोति किम्॥१८- ८॥
आत्मा ही ब्रह्म है और भाव-अभाव कल्पित हैं – ऐसा निश्चय हो जाने पर निष्काम ज्ञानी फिर क्या जाने, क्या कहे और क्या कहे ॥८॥Knowing himself to be God and being and non-being just imagination, what should the man free from desire learn, say or do ? ॥ 8 ॥
अयं सोऽहमयं नाहं
इति क्षीणा विकल्पना।
सर्वमात्मेति निश्चित्य
तूष्णींभूतस्य योगिनः॥१८- ९॥
सब आत्मा ही है – ऐसा निश्चय करके जो चुप हो गया है, उस पुरुष के लिए यह मैं हूँ, यह मैं नहीं हूँ आदि कल्पनाएँ भी शांत हो जाती हैं ॥९॥Considerations like ‘I am this’ or ‘I am not this’ are finished for the yogi who has gone silent realising ‘Everything is myself’ . ॥ 9 ॥
न विक्षेपो न चैकाग्र्यं
नातिबोधो न मूढता।
न सुखं न च वा दुःखं
उपशान्तस्य योगिनः॥१८- १०॥
अपने स्वरुप में स्थित होकर शांत हुए तत्त्व ज्ञानी के लिए न विक्षेप है और न एकाग्रता, न ज्ञान है और न अज्ञान, न सुख है और न दुःख ॥१०॥For the yogi who has found peace, there is no distraction or one-pointedness, no higher knowledge or ignorance, no pleasure and no pain . ॥ 10 ॥
स्वाराज्ये भैक्षवृत्तौ च
लाभालाभे जने वने।
निर्विकल्पस्वभावस्य
न विशेषोऽस्ति योगिनः॥१८- ११॥
जो योगी स्वभाव से ही विकल्प रहित है, उसके लिए अपने राज्य में या भिक्षा में, लाभ-हानि में, भीड़ में या सुने जंगल में कोई अंतर नहीं है ॥११॥The dominion of heaven or beggary, gain or loss, life among men or in the forest, these make no difference to a yogi whose nature it is to be free from distinctions . ॥ 11 ॥
क्व धर्मः क्व च वा कामः
क्व चार्थः क्व विवेकिता।
इदं कृतमिदं नेति
द्वन्द्वैर्मुक्तस्य योगिनः॥१८- १२॥
यह कर लिया और यह कार्य शेष है, इन द्वंद्वों से जो मुक्त है, उसके लिए धर्म कहाँ, कर्म कहाँ, अर्थ कहाँ और विवेक कहाँ ॥१२॥There is no religion, wealth, sensuality or discrimination for a yogi free from the pairs of opposites such as ‘I have done this’ and ‘I have not done that’ . ॥ 12 ॥

कृत्यं किमपि नैवास्ति
न कापि हृदि रंजना।
यथा जीवनमेवेह
जीवन्मुक्तस्य योगिनः॥१८- १३॥
जीवन्मुक्त योगी का न तो कुछ कर्तव्य है और न ही उसके ह्रदय में कोई अनुराग है । जैसे भी जीवन बीत जाये वैसे ही उसकी स्थिति है ॥१३॥There is nothing needing to be done, or any attachment in his heart for the yogi liberated while still alive. Things are just for a lifetime . ॥ 13 ॥
क्व मोहः क्व च वा विश्वं
क्व तद् ध्यानं क्व मुक्तता।
सर्वसंकल्पसीमायां
विश्रान्तस्य महात्मनः॥१८- १४॥
जो महात्मा सभी संकल्पों की सीमा पर विश्राम कर रहा है, उसके लिए मोह कहाँ, संसार कहाँ, ध्यान कहाँ और मुक्ति भी कहाँ? ॥१४॥There is no delusion, world, meditation on That, or liberation for the pacified great soul. All these things are just the realm of imagination . ॥ 14 ॥
येन विश्वमिदं दृष्टं स
नास्तीति करोतु वै।
निर्वासनः किं कुरुते
पश्यन्नपि न पश्यति॥१८- १५॥
जिसने इस संसार को वास्तव में देखा हो वह कहे कि यह नहीं है, नहीं है । जो कामना रहित है, वह तो इसको देखते हुए भी नहीं देखता ॥१५॥He by whom all this is seen may well make out he doesn’t exist, but what is the desireless one to do? Even in seeing he does not see . ॥ 15 ॥
येन दृष्टं परं ब्रह्म
सोऽहं ब्रह्मेति चिन्तयेत्।
किं चिन्तयति निश्चिन्तो
यो न पश्यति॥१८- १६॥
जिसने अपने से भिन्न परब्रह्म को देखा हो, वह चिंतन किया करे कि वह ब्रह्म मैं हूँ पर जिसे कुछ दूसरा दिखाई नहीं देता, वह निश्चिन्त क्या विचार करे ॥१६॥He by whom the Supreme Brahma is seen may think ‘I am Brahma’, but what is he to think who is without thought, and who sees no duality . ॥ 16 ॥
दृष्टो येनात्मविक्षेपो
निरोधं कुरुते त्वसौ।
उदारस्तु न विक्षिप्तः
साध्याभावात्करोति किम्॥१८- १७॥
जिसने अपने स्वरुप में कभी कोई विक्षेप देखा हो वह उसको रोके । तत्त्व को जानने वाले का विक्षेप कभी होता ही नहीं है, किसी साध्य के बिना वह क्या करे ॥१७॥He by whom inner distraction is seen may put an end to it, but the noble one is not distracted. When there is nothing to achieve, what is he to do ? ॥ 17 ॥
धीरो लोकविपर्यस्तो
वर्तमानोऽपि लोकवत्।
नो समाधिं न विक्षेपं
न लोपं स्वस्य पश्यति॥१८- १८॥
तत्त्वज्ञ तो सांसारिक लोगों से उल्टा ही होता है, वह सामान्य लोगों जैसा व्यवहार करता हुआ भी अपने स्वरुप में न समाधि  देखता है, न विक्षेप और न लय ही ॥१८॥The wise man, unlike the worldly man, does not see inner stillness, distraction or fault in himself, even when living like a worldly man . ॥ 18 ॥
भावाभावविहीनो यस्-
तृप्तो निर्वासनो बुधः।
नैव किंचित्कृतं तेन
लोकदृष्ट्या विकुर्वता॥१८- १९॥
तत्त्वज्ञ भाव और अभाव से रहित, तृप्त  और कामना रहित होता है । लौकिक दृष्टि से कुछ उल्टा-सीधा करते हुए भी वह कुछ भी नहीं करता ॥१९॥Nothing is done by him who is free from being and non-being, who is contented, desireless and wise, even if in the world’s eyes he does act . ॥ 19 ॥
प्रवृत्तौ वा निवृत्तौ वा
नैव धीरस्य दुर्ग्रहः।
यदा यत्कर्तुमायाति
तत्कृत्वा तिष्ठते सुखम्॥१८- २०॥
तत्त्वज्ञ का प्रवृत्ति या निवृत्ति का दुराग्रह नहीं होता । जब जो सामने आ जाता है तब उसे करके वह आनंद से रहता है ॥२०॥The wise man who just goes on doing what presents itself for him to do, encounters no difficulty in either activity or inactivity . ॥ 20 ॥
निर्वासनो निरालंबः
स्वच्छन्दो मुक्तबन्धनः।
क्षिप्तः संस्कारवातेन
चेष्टते शुष्कपर्णवत्॥१८- २१॥
ज्ञानी कामना, आश्रय और परतंत्रता आदि के बंधनों से सर्वथा मुक्त होता है । प्रारब्ध रूपी वायु के वेग से उसका शरीर उसी प्रकार गतिशील रहता है जैसे वायु के वेग से सूखा पत्ता ॥२१॥He who is desireless, self-reliant, independent and free of bonds functions like a dead leaf blown about by the wind of causality . ॥ 21 ॥
असंसारस्य तु क्वापि
न हर्षो न विषादिता।
स शीतलहमना नित्यं
विदेह इव राजये॥१८- २२॥
जो संसार से मुक्त है वह न कभी हर्ष करता है और न विषाद । उसका मन सदा शीतल रहता है और वह (शरीर रहते हुए भी) विदेह के समान सुशोभित होता है ॥२२॥There is neither joy nor sorrow for one who has transcended samsara. He lives always with a peaceful mind and as if without a body . ॥ 22 ॥
कुत्रापि न जिहासास्ति
नाशो वापि न कुत्रचित्।
आत्मारामस्य धीरस्य
शीतलाच्छतरात्मनः॥१८- २३॥
जिसका अंतर्मन शीतल और स्वच्छ है, जो आत्मा में ही रमण करता है, उस धीर पुरुष की न तो किसी त्याग की इच्छा होती है और न कुछ पाने की आशा ॥२३॥He whose joy is in himself, and who is peaceful and pure within has no desire for renunciation or sense of loss in anything . ॥ 23 ॥
प्रकृत्या शून्यचित्तस्य
कुर्वतोऽस्य यदृच्छया।
प्राकृतस्येव धीरस्य
न मानो नावमानता॥१८- २४॥
जिस धीर पुरुष का चित्त स्वभाव से ही निर्विषय है,  वह साधारण मनुष्य के समान प्रारब्ध वश बहुत से कार्य करता है पर उसका उसे न तो मान होता है और न अपमान ही ॥२४॥For the man with a naturally empty mind, doing just as he pleases, there is no such thing as pride or false humility, as there is for the natural man . ॥ 24 ॥
कृतं देहेन कर्मेदं
न मया शुद्धरूपिणा।
इति चिन्तानुरोधी यः
कुर्वन्नपि करोति न॥१८- २५॥
‘यह कर्म शरीर ने किया है, मैंने नहीं, मैं तो शुद्ध स्वरुप हूँ’  – इस प्रकार जिसने निश्चय कर लिया है, वह कर्म करता हुआ भी नहीं करता ॥२५॥This action was done by the body but not by me’. The pure-natured person thinking like this, is not acting even when acting . ॥ 25 ॥
अतद्वादीव कुरुते
न भवेदपि बालिशः।
जीवन्मुक्तः सुखी श्रीमान्
संसरन्नपि शोभते॥१८- २६॥
सुखी और श्रीमान् जीवन्मुक्त विषयी के समान कार्य करता है, परन्तु विषयी नहीं होता है वह तो सांसारिक कार्य करता हुआ भी शोभा को प्राप्त होता है ॥२६॥He who acts without being able to say why, but not because he is a fool, he is one liberated while still alive, happy and blessed. He thrives even in samsara . ॥ 26 ॥
नाविचारसुश्रान्तो धीरो
विश्रान्तिमागतः।
न कल्पते न जाति
न शृणोति न पश्यति॥१८- २७॥
जो धीर पुरुष अनेक विचारों से थककर अपने स्वरूप में विश्राम पा चुका है, वह न कल्पना करता है, न जानता है, न सुनता है और न देखता ही है ॥२७॥
He who has had enough of endless considerations and has attained to peace, does not think, know, hear or see . ॥ 27 ॥
असमाधेरविक्षेपान्
न मुमुक्षुर्न चेतरः।
निश्चित्य कल्पितं पश्यन्
ब्रह्मैवास्ते महाशयः॥१८- २८॥
ऐसा ज्ञानी समाधि में आग्रह न होने के कारण मुमुक्षु नहीं और विक्षेप न होने के कारण विषयी नहीं है । मेरे अतिरिक्त जो कुछ भी दिख रहा है वह सब कल्पित ही है – ऐसा निश्चय करके सबको देखता हुआ वह ब्रह्म ही है ॥२८॥He who is beyond mental stillness and distraction, does not desire either liberation or anything else. Recognising that things are just constructions of the imagination, that great soul lives as God here and now . ॥ 28 ॥
यस्यान्तः स्यादहंकारो
न करोति करोति सः।
निरहंकारधीरेण न
किंचिदकृतं कृतम्॥१८- २९॥
जिसके अन्तः करण में अहंकार विद्यमान है वह देखने में कर्म न करे तो भी करता है । पर जो धीर पुरुष निरहंकार है, वह सब कुछ करते हुए भी कर्म नहीं करता ॥९॥He who feels responsibility within, acts even when not acting, but there is no sense of done or undone for the wise man who is free from the sense of responsibility . ॥ 29 ॥
नोद्विग्नं न च सन्तुष्ट-
मकर्तृ स्पन्दवर्जितं।
निराशं गतसन्देहं
चित्तं मुक्तस्य राजते॥१८- ३०॥
मुक्त पुरुष के चित्त में न उद्वेग है, न संतोष और न कर्तृत्व का अभिमान ही है उसके चित्त में न आशा है, न संदेह ऐसा चित्त ही सुशोभित होता है ॥३०॥The mind of the liberated man is not upset or pleased. It shines unmoving, desireless, and free from doubt. ॥ 30 ॥
निर्ध्यातुं चेष्टितुं वापि
यच्चित्तं न प्रवर्तते।
निर्निमित्तमिदं किंतु
निर्ध्यायेति विचेष्टते॥१८- ३१॥
जीवन्मुक्त का चित्त ध्यान से विरत होने के लिए और व्यवहार करने की चेष्टा नहीं करता है । निमित्त के शून्य होने पर वह ध्यान से विरत भी होता है और व्यवहार भी करता है ॥३१॥He whose mind does not set out to meditate or act, meditates and acts without an object . ॥ 31 ॥
तत्त्वं यथार्थमाकर्ण्य
मन्दः प्राप्नोति मूढतां।
अथवा याति संकोचम-
मूढः कोऽपि मूढवत्॥१८- ३२॥
अविवेकी पुरुष यथार्थ तत्त्व का वर्णन सुनकर और अधिक मोह को प्राप्त होता है या संकुचित हो जाता है । कभी-कभी तो कुछ बुद्धिमान भी उसी अविवेकी के समान व्यवहार करने लगते हैं ॥३२॥A stupid man is bewildered when he hears the real truth, while even a clever man is humbled by it just like the fool . ॥ 32 ॥
एकाग्रता निरोधो वा
मूढैरभ्यस्यते भृशं।
धीराः कृत्यं न पश्यन्ति
सुप्तवत्स्वपदे स्थिताः॥१८- ३३॥
मूढ़ पुरुष बार-बार (चित्त की ) एकाग्रता और निरोध का अभ्यास करते हैं । धीर पुरुष सुषुप्त के समान अपने स्वरूप में स्थित रहते हुए कुछ भी कर्तव्य रूप से नहीं करते ॥३३॥The ignorant make a great effort to practice one-pointedness and the stopping of thought, while the wise see nothing to be done and remain in themselves like those asleep . ॥ 33 ॥
अप्रयत्नात् प्रयत्नाद् वा
मूढो नाप्नोति निर्वृतिं।
तत्त्वनिश्चयमात्रेण
प्राज्ञो भवति निर्वृतः॥१८- ३४॥
मूढ़ पुरुष प्रयत्न से या प्रयत्न के त्याग से शांति प्राप्त नहीं करता पर प्रज्ञावान पुरुष तत्त्व के निश्चय मात्र से शांति प्राप्त कर लेता है ॥३४॥The stupid does not attain cessation whether he acts or abandons action, while the wise man find peace within simply by knowing the truth . ॥ 34 ॥
शुद्धं बुद्धं प्रियं पूर्णं
निष्प्रपंचं निरामयं।
आत्मानं तं न जानन्ति
तत्राभ्यासपरा जनाः॥१८- ३५॥
आत्मा के सम्बन्ध में जो लोग अभ्यास में लग रहे हैं, वे अपने शुद्ध, बुद्ध, प्रिय, पूर्ण, निष्प्रपंच और निरामय ब्रह्म-स्वरूप को नहीं जानते ॥३५॥People cannot come to know themselves by practices – pure awareness, clear, complete, beyond multiplicity and faultless though they are . ॥ 35 ॥
नाप्नोति कर्मणा मोक्षं
विमूढोऽभ्यासरूपिणा।
धन्यो विज्ञानमात्रेण
मुक्तस्तिष्ठत्यविक्रियः॥१८- ३६॥
अज्ञानी मनुष्य कर्म रूपी अभ्यास से मुक्ति नहीं पा सकता और ज्ञानी कर्म रहित होने पर भी केवल ज्ञान से मुक्ति प्राप्त कर लेता है ॥३६॥The stupid does not achieve liberation even through regular practice, but the fortunate remains free and actionless simply by discrimination . ॥ 36 ॥
मूढो नाप्नोति तद् ब्रह्म
यतो भवितुमिच्छति।
अनिच्छन्नपि धीरो हि
परब्रह्मस्वरूपभाक्॥१८- ३७॥
अज्ञानी को ब्रह्म का साक्षात्कार नहीं हो सकता क्योंकि वह ब्रह्म होना चाहता है । ज्ञानी पुरुष इच्छा न करने पर भी परब्रह्म बोध स्वरूप में रहता है ॥३७॥The stupid does not attain Godhead because he wants to become it, while the wise man enjoys the Supreme Godhead without even wanting it . ॥ 37 ॥
निराधारा ग्रहव्यग्रा
मूढाः संसारपोषकाः।
एतस्यानर्थमूलस्य
मूलच्छेदः कृतो बुधैः॥१८- ३८॥
अज्ञानी निराधार आग्रहों में पड़कर संसार का पोषण करते रहते हैं । ज्ञानियों ने सभी अनर्थों की जड़ इस संसार की सत्ता का ही पूर्ण नाश कर दिया है ॥३८॥Even when living without any support and eager for achievement, the stupid are still nourishing samsara , while the wise have cut at the very root of its unhappiness . ॥ 38 ॥

न शान्तिं लभते मूढो
यतः शमितुमिच्छति।
धीरस्तत्त्वं विनिश्चित्य
सर्वदा शान्तमानसः॥१८- ३९॥
अज्ञानी शांति नहीं प्राप्त कर सकता क्योंकि वह शांत होने की इच्छा से ग्रस्त है । ज्ञानी पुरुष तत्त्व का दृढ़ निश्चय करके सदैव शांत चित्त ही रहता है ॥३९॥The stupid does not find peace because he is wanting it, while the wise discriminating the truth is always peaceful minded . ॥ 39 ॥
क्वात्मनो दर्शनं तस्य
यद् दृष्टमवलंबते।
धीरास्तं तं न पश्यन्ति
पश्यन्त्यात्मानमव्ययम्॥१८- ४०॥
अज्ञानी को आत्म-साक्षात्कार कैसे हो सकता है जब वह दृश्य पदार्थों के आश्रय को स्वीकार करता है । ज्ञानी पुरुष तो वे हैं जो दृश्य पदार्थों को न देखते हुए अपने अविनाशी स्वरूप को ही देखते हैं ॥४०॥How can there be self knowledge for him whose knowledge depends on what he sees. The wise do not see this and that, but see themselves as unending . ॥ 40 ॥
क्व निरोधो विमूढस्य
यो निर्बन्धं करोति वै।
स्वारामस्यैव धीरस्य
सर्वदासावकृत्रिमः॥१८- ४१॥
जो आग्रह करता है, उस मूर्ख का चित्त निरुद्ध कहाँ है?  आत्मा में रमण करने वाले धीर पुरुष का चित्त तो सदैव स्वाभाविक रूप से निरुद्ध ही रहता है ॥४१॥
How can there be cessation of thought for the misguided who is striving for it. Yet it is there always naturally for the wise man delighted in self . ॥ 41 ॥
भावस्य भावकः कश्चिन्
न किंचिद् भावकोपरः।
उभयाभावकः कश्चिद्
एवमेव निराकुलः॥१८- ४२॥
कोई पदार्थ की सत्ता की भावना करता है और कोई पदार्थों की असत्ता की । ज्ञानी तो भाव-अभाव दोनों की भावना को छोड़कर निश्चिन्त रहता है ॥४२॥
Some think that something exists, and others that nothing does. Rare is the man who does not think either, and is thereby free from distraction . ॥ 42 ॥
शुद्धमद्वयमात्मानं
भावयन्ति कुबुद्धयः।
न तु जानन्ति संमोहा-
द्यावज्जीवमनिर्वृताः॥१८- ४३॥
बुद्धिहीन पुरुष अज्ञानवश अपने शुद्ध, अद्वितीय स्वरूप का ज्ञान तो प्राप्त करते नहीं पर केवल भावना करते हैं, उन्हें जीवन पर्यन्त शांति नहीं मिलती ॥४३॥Those of weak intelligence think of themselves as pure non-duality, but because of their delusion do not know this, and remain unfulfilled all their lives . ॥ 43 ॥
मुमुक्षोर्बुद्धिरालंब-
मन्तरेण न विद्यते।
निरालंबैव निष्कामा
बुद्धिर्मुक्तस्य सर्वदा॥१८- ४४॥
मुमुक्षु पुरुष की बुद्धि कुछ आश्रय ग्रहण किये बिना नहीं रहती । मुक्त पुरुष की बुद्धि तो सब प्रकार से निष्काम और निराश्रय ही रहती है ॥४४॥The mind of the man seeking liberation can find no resting place within, but the mind of the liberated man is always free from desire by the very fact of being without a resting place . ॥ 44 ॥
विषयद्वीपिनो वीक्ष्य
चकिताः शरणार्थिनः।
विशन्ति झटिति क्रोडं
निरोधैकाग्रसिद्धये॥१८- ४५॥
अज्ञानी पुरुष विषयरूपी मतवाले हाथियों को देखकर भयभीत हो जाते हैं और शरण के लिए तुरंत निरोध और एकाग्रता की सिद्धि के लिए झटपट चित्त की गुफा में घुस जाते है ॥४५॥Seeing the tigers of the senses, the frightened refuge-seekers at once enter the cave in search of cessation of thought and one-pointedness . ॥ 45 ॥
निर्वासनं हरिं दृष्ट्वा
तूष्णीं विषयदन्तिनः।
पलायन्ते न शक्तास्ते
सेवन्ते कृतचाटवः॥१८- ४६॥
कामना रहित ज्ञानी सिंह है, उसे देखते ही विषय रूपी मतवाले हाथी चुपचाप भाग जाते हैं उनकी एक नहीं चलती उलटे वे तरह-तरह से खुशामद करके सेवा करते हैं ॥४६॥Seeing the desireless lion the elephants of the senses silently run away, or, if they cannot, serve him like courtiers . ॥ 46 ॥
न मुक्तिकारिकां धत्ते
निःशङ्को युक्तमानसः।
पश्यन् शृण्वन् स्पृशन्
जिघ्रन्नश्नन्नास्ते यथासुखम्॥१८- ४७॥
शंका रहित ज्ञानी पुरुष मुक्ति के साधनों का अभ्यास नहीं करता, वह तो देखते, सुनते, छूते, सूंघते, भोगते हुए भी आनंद में मग्न रहता है ॥४७॥The man who is free from doubts and whose mind is free does not bother about means of liberation. Whether seeing, hearing, feeling smelling or tasting, he lives at ease . ॥ 47 ॥

वस्तुश्रवणमात्रेण
शुद्धबुद्धिर्निराकुलः।
नैवाचारमनाचार-
मौदास्यं वा प्रपश्यति॥१८- ४८॥
शुद्ध-बुद्धि पुरुष वस्तु-तत्त्व के केवल सुनने मात्र से आकुलता रहित हो जाता है, फिर आचार-अनाचार या उदासीनता पर उसकी दृष्टि नहीं जाती ॥४८॥He whose mind is pure and undistracted from the simple hearing of the Truth sees neither something to do nor something to avoid nor a cause for indifference . ॥ 48 ॥
यदा यत्कर्तुमायाति
तदा तत्कुरुते ऋजुः।
शुभं वाप्यशुभं वापि
तस्य चेष्टा हि बालवत्॥१८- ४९॥
स्वभाव में स्थित ज्ञानी, शुभ हो या अशुभ, जो जब करने के लिए सामने आ जाता है, तब वह उसे बालक की चेष्टा के समान सरलता से कर डालता है ॥४९॥The straightforward person does whatever arrives to be done, good or bad, for his actions are like those of a child . ॥ 49 ॥
स्वातंत्र्यात्सुखमाप्नोति
स्वातंत्र्याल्लभते परं।
स्वातंत्र्यान्निर्वृतिं गच्छेत्-
स्वातंत्र्यात् परमं पदम्॥१८- ५०॥
स्वतंत्रता से ही सुख की प्राप्ति होती है । स्वतंत्रता से ही परम तत्त्व की उपलब्धि होती है । स्वतंत्रता से ही परम शांति की प्राप्ति होती है । स्वतंत्रता से ही परम पद मिलता है ॥५०॥By inner freedom one attains happiness, by inner freedom one reaches the Supreme, by inner freedom one comes to absence of thought, by inner freedom to the Ultimate State . ॥ 50 ॥
अकर्तृत्वमभोक्तृत्वं
स्वात्मनो मन्यते यदा।
तदा क्षीणा भवन्त्येव
समस्ताश्चित्तवृत्तयः॥१८- ५१॥
जब साधक अपने आपको अकर्ता और अभोक्ता निश्चय कर लेता है तब उसके चित्त की सभी वृत्तियाँ क्षीण हो जाती हैं ॥५१॥When one sees oneself as neither the doer nor the reaper of the consequences, then all mind waves come to an end . ॥ 51 ॥
उच्छृंखलाप्यकृतिका
स्थितिर्धीरस्य राजते।
न तु सस्पृहचित्तस्य
शान्तिर्मूढस्य कृत्रिमा॥१८- ५२॥
धीर पुरुष की स्वाभाविक स्थिति विक्षोभ युक्त होने पर भी श्रेष्ठ है पर जिसके चित्त में अनेक इच्छाएं भरी हैं उस अज्ञानी पुरुष पर बनावटी शांति शोभा नहीं पाती ॥५२॥The spontaneous unassumed behaviour of the wise is noteworthy, but not the deliberate, intentional stillness of the fool . ॥ 52 ॥
विलसन्ति महाभोगै-
र्विशन्ति गिरिगह्वरान्।
निरस्तकल्पना धीरा
अबद्धा मुक्तबुद्धयः॥१८- ५३॥
धीर पुरुष बड़े भोगों में आनंद करते हैं और पर्वतों की गहन गुफाओं में भी निवास करते हैं पर वे कल्पना, बंधन और बुद्धि की वृत्तियों से मुक्त होते हैं ॥५३॥The wise who are rid of imagination, unbound and with unfettered awareness may enjoy themselves in the midst of many goods, or alternatively go off to mountain caves . ॥ 53 ॥
श्रोत्रियं देवतां तीर्थम-
ङ्गनां भूपतिं प्रियं।
दृष्ट्वा संपूज्य धीरस्य
न कापि हृदि वासना॥१८- ५४॥
धीर पुरुष शास्त्रज्ञ ब्राह्मण, देवता, तीर्थ, स्त्री, राजा और प्रिय को देख कर उनका स्वागत करता है पर उसके ह्रदय में कोई कामना नहीं होती ॥५४॥There is no attachment in the heart of a wise man whether he sees or pays homage to a learned brahmin, a celestial being, a holy place, a woman, a king or a friend . ॥ 54 ॥
भृत्यैः पुत्रैः कलत्रैश्च
दौहित्रैश्चापि गोत्रजैः।
विहस्य धिक्कृतो योगी
न याति विकृतिं मनाक्॥१८- ५५॥
सेवक, पुत्र, स्त्री, नाती और सगोत्र द्वारा हंसी उदय जाने पर, धिक्कारने पर भी योगी के चित्त में थोड़ा सा विकार भी उत्पन्न नहीं होता ॥५५॥A yogi is not in the least put out even when humiliated by the ridicule of servants, sons, wives, grandchildren or other relatives . ॥ 55 ॥
सन्तुष्टोऽपि न सन्तुष्टः
खिन्नोऽपि न च खिद्यते।
तस्याश्चर्यदशां तां
तादृशा एव जानते॥१८- ५६॥
लौकिक दृष्टि से प्रसन्न दिखने पर वह प्रसन्न नहीं होता और दुखी दिखने पर दुखी नहीं होता । उसकी उस आश्चर्यमय दशा को उसके समान लोग ही जान सकते हैं ॥५६॥Even when pleased he is not pleased, not suffering even when in pain. Only those like him can know the wonderful state of such a man . ॥ 56 ॥
कर्तव्यतैव संसारो न
तां पश्यन्ति सूरयः।
शून्याकारा निराकारा
निर्विकारा निरामयाः॥१८- ५७॥
कर्तव्य बुद्धि का नाम ही संसार है, विद्वान लोग उस कर्तव्यता को नहीं देखते क्योंकि उनकी बुद्धि शून्याकार, निराकार, निर्विकार और निरामय होती है ॥५७॥It is the sense of responsibility which is samsara. The wise who are of the form of emptiness, formless, unchanging and spotless see no such thing . ॥ 57 ॥
अकुर्वन्नपि संक्षोभाद्
व्यग्रः सर्वत्र मूढधीः।
कुर्वन्नपि तु कृत्यानि
कुशलो हि निराकुलः॥१८- ५८॥
अज्ञानी पुरुष कुछ न करते हुए भी क्षोभवश सदा व्यग्र ही रहता है । योगी पुरुष बहुत से कार्य करता हुआ भी शांत रहता है ॥५८॥Even when doing nothing the fool is agitated by restlessness, while a skillful man remains undisturbed even when doing what there is to do . ॥ 58 ॥
सुखमास्ते सुखं शेते
सुखमायाति याति च।
सुखं वक्ति सुखं भुंक्ते
व्यवहारेऽपि शान्तधीः॥१८- ५९॥
शांत बुद्धि वाला पुरुष सुख से बैठता है, सुख से सोता है, सुख से आता-जाता है, सुख से बोलता है और सुख से ही खाता है ॥५९॥Happy he stands, happy he sits, happy sleeps and happy he comes and goes. Happy he speaks, and happy he eats. Such is the life of a man at peace . ॥ 59 ॥
स्वभावाद्यस्य नैवार्ति-
र्लोकवद् व्यवहारिणः।
महाहृद इवाक्षोभ्यो
गतक्लेशः स शोभते॥१८- ६०॥
जो बड़े सरोवर के समान शांत है और लौकिक आचरण करते हुए जिसको अन्य लोगों के समान दुःख नहीं होता, वह दुःख रहित ज्ञानी शोभित होता है ॥६०॥He who by his very nature feels no unhappiness in his daily life like worldly people, remains undisturbed like a great lake, all sorrow gone . ॥ 60 ॥
निवृत्तिरपि मूढस्य
प्रवृत्ति रुपजायते।
प्रवृत्तिरपि धीरस्य
निवृत्तिफलभागिनी॥१८- ६१॥
मूढ़ में निवृत्ति से भी प्रवृत्ति उत्पन्न हो जाती है और धीर पुरुष की प्रवृत्ति भी निर्वृत्ति के समान फलदायिनी है ॥६१॥Even abstention from action leads to action in a fool, while even the action of the wise man brings the fruits of inaction . ॥ 61 ॥
परिग्रहेषु वैराग्यं
प्रायो मूढस्य दृश्यते।
देहे विगलिताशस्य
क्व रागः क्व विरागता॥१८- ६२॥
अज्ञानी पुरुष प्रायः गृह आदि पदार्थों से वैराग्य करता दिखाई देता है पर जिसका देह-अभिमान नष्ट हो चुका है, उसके लिए कहाँ राग और कहाँ विराग ॥६२॥A fool often shows aversion towards his belongings, but for him whose attachment to the body has dropped away, there is neither attachment nor aversion . ॥ 62 ॥
भावनाभावनासक्ता
दृष्टिर्मूढस्य सर्वदा।
भाव्यभावनया सा तु
स्वस्थस्यादृष्टिरूपिणी॥१८- ६३॥
अज्ञानी की दृष्टि सदा भाव या अभाव में लगी रहती है, पर धीर पुरुष तो दृश्य को देखते रहने पर भी आत्म स्वरूप को देखने के कारण कुछ नहीं देखती ॥६३॥The mind of the fool is always caught in an opinion about becoming or avoiding something, but the wise man’s nature is to have no opinions about becoming and avoiding . ॥ 63 ॥
सर्वारंभेषु निष्कामो
यश्चरेद् बालवन् मुनिः।
न लेपस्तस्य शुद्धस्य
क्रियमाणोऽपि कर्मणि॥१८- ६४॥
जो धीर पुरुष सभी कार्यों में एक बालक के समान निष्काम भाव से व्यवहार करता है, वह शुद्ध है और कर्म करने पर भी उससे लिप्त नहीं होता ॥६४॥For the seer who behaves like a child, without desire in all actions, there is no attachment for such a pure one even in the work he does . ॥ 64 ॥
स एव धन्य आत्मज्ञः
सर्वभावेषु यः समः।
पश्यन् शृण्वन् स्पृशन् जिघ्रन्न् अश्नन्निस्तर्षमानसः॥१८- ६५॥
वह आत्मज्ञानी धन्य है जो सभी स्थितियों में समान रहता है । देखते, सुनते, छूते, सूंघते और खाते-पीते भी उसका मन कामना रहित होता है ॥६५॥Blessed is he who knows himself and is the same in all states, with a mind free from craving whether he is seeing, hearing, feeling, smelling or tasting . ॥ 65 ॥
क्व संसारः क्व चाभासः
क्व साध्यं क्व च साधनं।
आकाशस्येव धीरस्य
निर्विकल्पस्य सर्वदा॥१८- ६६॥
धीर पुरुष सदा आकाश के समान निर्विकल्प रहता है । उसकी दृष्टि में संसार कहाँ और उसकी प्रतीति कहाँ? उसके लिए साध्य क्या और साधन क्या? ॥६६॥
There is no man subject to samsara , sense of individuality, goal or means to the goal for the wise man who is always free from imaginations, and unchanging as space . ॥ 66 ॥
स जयत्यर्थसंन्यासी
पूर्णस्वरसविग्रहः।
अकृत्रिमोऽनवच्छिन्ने
समाधिर्यस्य वर्तते॥१८- ६७॥
जिस सन्यासी को अपने अखंड स्वरुप में सदा स्वाभाविक रूप से समाधि रहती है, जो पूर्ण स्वानंद स्वरूप है, वही विजयी है ॥६७॥Glorious is he who has abandoned all goals and is the incarnation of satisfaction, his very nature, and whose inner focus on the Unconditioned is quite spontaneous . ॥ 67 ॥
बहुनात्र किमुक्तेन
ज्ञाततत्त्वो महाशयः।
भोगमोक्षनिराकांक्षी
सदा सर्वत्र नीरसः॥१८- ६८॥
बहुत कहने से क्या लाभ? महात्मा पुरुष भोग और मोक्ष दोनों की इच्छा नहीं करता और सदा-सर्वत्र रागरहित होता है ॥६८॥In brief, the great- souled man who has come to know the Truth is without desire for either pleasure or liberation, and is always and everywhere free from attachment . ॥ 68 ॥
महदादि जगद्द्वैतं
नाममात्रविजृंभितं।
विहाय शुद्धबोधस्य
किं कृत्यमवशिष्यते॥१८- ६९॥
महतत्त्व से लेकर सम्पूर्ण द्वैतरूप दृश्य जगत नाम मात्र का ही विस्तार है । शुद्ध बोध स्वरुप धीर ने जब उसका भी परित्याग कर दिया फिर भला उसका क्या कर्तव्य शेष है ॥६९॥What remains to be done by the man who is pure awareness and has abandoned everything that can be expressed in words from the highest heaven to the earth itself ? ॥ 69 ॥
भ्रमभृतमिदं सर्वं
किंचिन्नास्तीति निश्चयी।
अलक्ष्यस्फुरणः शुद्धः
स्वभावेनैव शाम्यति॥१८- ७०॥
यह सम्पूर्ण दृश्य जगत भ्रम मात्र है, यह कुछ नहीं है – ऐसे निश्चय से युक्त पुरुष दृश्य की स्फूर्ति से भी रहित हो जाता है और स्वभाव से ही शांत हो जाता है ॥७०॥The pure man who has experienced the Indescribable attains peace by his own nature, realizing that all this is nothing but illusion, and that nothing is . ॥ 70 ॥
शुद्धस्फुरणरूपस्य
दृश्यभावमपश्यतः।
क्व विधिः क्व वैराग्यं
क्व त्यागः क्व शमोऽपि वा॥१८- ७१॥
जो शुद्ध स्फुरण रूप है, जिसे दृश्य सत्तावान नहीं मालूम पड़ता, उसके लिए विधि क्या, वैराग्य क्या, त्याग क्या और शांति भी क्या ॥७१॥There are no rules, dispassion, renunciation or meditation for one who is pure receptivity by nature, and admits no knowable form of being ? ॥ 71 ॥
स्फुरतोऽनन्तरूपेण
प्रकृतिं च न पश्यतः।
क्व बन्धः क्व च वा मोक्षः
क्व हर्षः क्व विषादिता॥१८- ७२॥
जो अनंत रूप से स्वयं स्फुरित हो रहा है और प्रकृति की पृथक् सत्ता को नहीं देखता है, उसके लिए बंधन कहाँ, मोक्ष कहाँ, हर्ष कहाँ और विषाद कहाँ ॥७२॥For him who shines with the radiance of Infinity and is not subject to natural causality there is neither bondage, liberation, pleasure nor pain . ॥ 72 ॥
बुद्धिपर्यन्तसंसारे
मायामात्रं विवर्तते।
निर्ममो निरहंकारो
निष्कामः शोभते बुधः॥१८- ७३॥
बुद्धि के अंत तक ही संसार है और यह केवल माया का विवर्त है, इस तत्त्व को जानने वाला बुद्धिमान ममता, अहंकार और कामना से रहित होकर शोभित होता है ॥७३॥Pure illusion reigns in samsara which will continue until self realisation, but the enlightened man lives in the beauty of freedom from me and mine, from the sense of responsibility and from any attachment. ॥ 73 ॥

अक्षयं गतसन्ताप-
मात्मानं पश्यतो मुनेः।
क्व विद्या च क्व वा विश्वं
क्व देहोऽहं ममेति वा॥१८- ७४॥
जो मुनि संताप से रहित अपने अविनाशी स्वरुप को जानता है, उसके लिए विद्या कहाँ और विश्व कहाँ अथवा देह कहाँ और मैं-मेरा कहाँ ॥७४॥For the seer who knows himself as imperishable and beyond pain there is neither knowledge, a world nor the sense that I am the body or the body mine . ॥ 74 ॥
निरोधादीनि कर्माणि
जहाति जडधीर्यदि।
मनोरथान् प्रलापांश्च
कर्तुमाप्नोत्यतत्क्षणात्॥१८- ७५॥
जड़ बुद्धि वाला यदि निरोध आदि कर्मों को छोड़ देता है तो अगले क्षण बड़े-बड़े मनोरथ बनाने और प्रलाप करने लगता है ॥७५॥No sooner does a man of low intelligence give up activities like the elimination of thought than he falls into mental chariot racing and babble . ॥ 75 ॥
मन्दः श्रुत्वापि तद्वस्तु
न जहाति विमूढतां।
निर्विकल्पो बहिर्यत्नाद-
न्तर्विषयलालसः॥१८- ७६॥
अज्ञानी तत्त्व का श्रवण करके भी अपनी मूढ़ता का त्याग नहीं करता, वह बाह्य रूप से तो निसंकल्प हो जाता है पर उसके अंतर्मन में विषयों की इच्छा बनी रहती है ॥७६॥A fool does not get rid of his stupidity even on hearing the truth. He may appear outwardly free from imaginations, but inside he is hankering after the senses still . ॥ 76 ॥
ज्ञानाद् गलितकर्मा
यो लोकदृष्ट्यापि कर्मकृत्।
नाप्नोत्यवसरं कर्मं
वक्तुमेव न किंचन॥१८- ७७॥
ज्ञान से जिसका कर्म-बंधन नष्ट हो गया है, वह लौकिक रूप से कर्म करता रहे तो भी उसके कुछ करने या कहने का अवसर नहीं रहता (क्योंकि वह अकर्ता और अवक्ता है) ॥७७॥   Though in the eyes of the world he is active, the man who has shed action through knowledge finds no means of doing or speaking anything . ॥ 77 ॥
क्व तमः क्व प्रकाशो वा
हानं क्व च न किंचन।
निर्विकारस्य धीरस्य
निरातंकस्य सर्वदा॥१८- ७८॥
जो धीर सदा निर्विकार और भय रहित है, उसके लिए अन्धकार कहाँ, प्रकाश कहाँ और त्याग कहाँ? उसके लिए किसी का अस्तित्व नहीं रहता ॥७८॥For the wise man who is always unchanging and fearless there is neither darkness nor light nor destruction, nor anything . ॥ 78 ॥
क्व धैर्यं क्व विवेकित्वं
क्व निरातंकतापि वा।
अनिर्वाच्यस्वभावस्य
निःस्वभावस्य योगिनः॥१८- ७९॥
योगी को धैर्य कहाँ, विवेक कहाँ और निर्भयता भी कहाँ? उसका स्वभाव अनिर्वचनीय है और वह वस्तुतः स्वभाव रहित है ॥७९॥There is neither fortitude, prudence nor courage for the yogi whose nature is beyond description and free of individuality . ॥ 79 ॥
न स्वर्गो नैव नरको
जीवन्मुक्तिर्न चैव हि।
बहुनात्र किमुक्तेन
योगदृष्ट्या न किंचन॥१८- ८०॥
योगी के लिए न स्वर्ग है, न नरक और न जीवन्मुक्ति ही । इस सम्बन्ध में अधिक कहने से क्या लाभ है  योग की दृष्टि से कुछ भी नहीं है ॥८०॥There is neither heaven nor hell nor even liberation during life. In a nutshell, in the sight of the seer nothing exists at all . ॥ 80 ॥
नैव प्रार्थयते लाभं
नालाभेनानुशोचति।
धीरस्य शीतलं चित्तम-
मृतेनैव पूरितम्॥१८- ८१॥
धीर का चित्त ऐसे शीतल रहता है जैसे वह अमृत से परिपूर्ण हो । वह न लाभ की आशा करता है और न हानि का शोक ॥८१॥
He neither longs for possessions nor grieves at their absence. The calm mind of the sage is full of the nectar of immortality . ॥ 81 ॥
न शान्तं स्तौति निष्कामो
न दुष्टमपि निन्दति।
समदुःखसुखस्तृप्तः किंचित्
कृत्यं न पश्यति॥१८- ८२॥
धीर पुरुष न संत की स्तुति करता है और न दुष्ट की निंदा । वह सुख-दुख में समान, स्वयं में तृप्त रहता है । वह अपने लिए कोई भी कर्तव्य नहीं देखता ॥८२॥The dispassionate does not praise the good or blame the wicked. Content and equal in pain and pleasure, he sees nothing that needs doing . ॥ 82 ॥
धीरो न द्वेष्टि संसारमा-
त्मानं न दिदृक्षति।
हर्षामर्षविनिर्मुक्तो न
मृतो न च जीवति॥१८- ८३॥
धीर पुरुष न संसार से द्वेष करता है और न आत्म-दर्शन की इच्छा । वह हर्ष और शोक से रहित है । लौकिक दृष्टि से वह न तो मृत है और न जीवित ॥८३॥The wise man does not dislike samsara or seek to know himself. Free from pleasure and impatience, he is not dead and he is not alive . ॥ 83 ॥
निःस्नेहः पुत्रदारादौ
निष्कामो विषयेषु च।
निश्चिन्तः स्वशरीरेऽपि
निराशः शोभते बुधः॥१८- ८४॥
जो धीर पुरुष पुत्र-स्त्री आदि के प्रति आसक्ति से रहित होता है, विषय की उपलब्धि में उसकी प्रवृत्ति नहीं होती, अपने शरीर के लिए भी निश्चिन्त रहता है, सभी आशाओं से रहित होता है, वह सुशोभित होता है ॥८४॥The wise man stands out by being free from anticipation, without attachment to such things as children or wives, free from desire for the senses, and not even concerned about his own body . ॥ 84 ॥
तुष्टिः सर्वत्र धीरस्य
यथापतितवर्तिनः।
स्वच्छन्दं चरतो देशान्
यत्रस्तमितशायिनः॥१८- ८५॥
जहाँ सूर्यास्त हुआ वहां सो लिया, जहाँ इच्छा हुई वहां रह लिया, जो सामने आया उसी के अनुसार व्यवहार कर लिया । इस प्रकार धीर सर्वत्र संतुष्ट रहता है ॥८५॥Peace is everywhere for the wise man who lives on whatever happens to come to him, going to wherever he feels like, and sleeping wherever the sun happens to set . ॥ 85 ॥
पततूदेतु वा देहो नास्य
चिन्ता महात्मनः।
स्वभावभूमिविश्रान्ति-
विस्मृताशेषसंसृतेः॥१८- ८६॥
जो अपने आत्मस्वरुप में विश्राम करते हुए सभी प्रपंचों का नाश कर चुका है, उस महात्मा को शरीर रहे अथवा नष्ट हो जाये – ऐसी चिंता भी नहीं होती ॥८६॥
Let his body rise or fall. The great souled one gives it no thought, having forgotten all about samsara in coming to rest on the ground of his true nature . ॥ 86 ॥
अकिंचनः कामचारो
निर्द्वन्द्वश्छिन्नसंशयः।
असक्तः सर्वभावेषु
केवलो रमते बुधः॥१८- ८७॥
ज्ञानी पुरुष संग्रह रहित, स्वच्छंद, निर्द्वन्द्व और संशय रहित होता है । वह किसी भाव में आसक्त नहीं होता । वह तो केवल आनंद से विहार करता है ॥८७॥The wise man has the joy of being complete in himself and without possessions, acting as he pleases, free from duality and rid of doubts, and without attachment to any creature . ॥ 87 ॥
निर्ममः शोभते धीरः
समलोष्टाश्मकांचनः।
सुभिन्नहृदयग्रन्थि-
र्विनिर्धूतरजस्तमः॥१८- ८८॥
धीर पुरुष की ह्रदय ग्रंथि खुल जाती है, रज और तम नष्ट हो जाते हैं । वह मिट्टी के ढ़ेले, पत्थर और सोने को समान दृष्टि से देखता है, ममता रहित वह सुशोभित होता है ॥८८॥The wise man excels in being without the sense of ‘me’. Earth, a stone or gold are the same to him. The knots of his heart have been rent asunder, and he is freed from greed and blindness . ॥ 88 ॥
सर्वत्रानवधानस्य न
किंचिद् वासना हृदि।
मुक्तात्मनो वितृप्तस्य
तुलना केन जायते॥१८- ८९॥
जो इस दृश्य प्रपंच पर ध्यान नहीं देता, आत्म तृप्त है, जिसके ह्रदय में जरा सी भी कामना नहीं होती – ऐसे मुक्तात्मा की तुलना किसके साथ की जा सकती है ॥८९॥Who can compare with that contented, liberated soul who pays no regard to anything and has no desire left in his heart ? ॥ 89 ॥
जानन्नपि न जानाति
पश्यन्नपि न पश्यति।
ब्रुवन्न् अपि न च ब्रूते
कोऽन्यो निर्वासनादृते॥१८- ९०॥
कामनारहित धीर के अतिरिक्त ऐसा और कौन है जो जानते हुए भी न जाने, देखते हुए भी न देखे और बोलते हुए भी न बोले ॥ ९०॥Who but the upright man without desire knows without knowing, sees without seeing and speaks without speaking ? ॥ 90 ॥
भिक्षुर्वा भूपतिर्वापि यो
निष्कामः स शोभते।
भावेषु गलिता यस्य
शोभनाशोभना मतिः॥१८- ९१॥
राजा हो या रंक, जो कामना रहित है वह ही सुशोभित होता है । जिसकी दृश्य वस्तुओं में शुभ और अशुभ बुद्धि समाप्त हो गयी है वह निष्काम है ॥९१॥Beggar or king, he excels who is without desire, and whose opinion of things is rid of ‘good’ and ‘bad’ . ॥ 91 ॥
क्व स्वाच्छन्द्यं क्व संकोचः
क्व वा तत्त्वविनिश्चयः।
निर्व्याजार्जवभूतस्य
चरितार्थस्य योगिनः॥१८- ९२॥
योगी निष्कपट, सरल और चरित्रवान होता है । उसके लिए स्वच्छंदता क्या, संकोच क्या और तत्त्व विचार भी क्या ॥९२॥There is neither dissolute behaviour nor virtue, nor even discrimination of the truth for the sage who has reached the goal and is the very embodiment of guileless sincerity . ॥ 92 ॥
आत्मविश्रान्तितृप्तेन
निराशेन गतार्तिना।
अन्तर्यदनुभूयेत तत्
कथं कस्य कथ्यते॥१८- ९३॥
जो अपने स्वरुप में विश्राम करके तृप्त है, आशा रहित है, दुःख रहित है, वह अपने अन्तः करण में जिस आनंद का अनुभव करता है वह कैसे किसी को बताया जा सकता है ॥९३॥How can one describe what is experienced within by one desireless and free from pain, and content to rest in himself – and of whom ? ॥ 93 ॥
सुप्तोऽपि न सुषुप्तौ च
स्वप्नेऽपि शयितो न च।
जागरेऽपि न जागर्ति
धीरस्तृप्तः पदे पदे॥१८- ९४॥
धीर पुरुष पद-पद पर तृप्त रहता है । वह सोकर भी नहीं सोता, वह स्वप्न देखकर भी नहीं देखता और जाग्रत रहने पर भी नहीं जगता ॥९४॥The wise man who is contented in all circumstances is not asleep even in deep sleep, not sleeping in a dream, nor waking when he is awake . ॥ 94 ॥
ज्ञः सचिन्तोऽपि निश्चिन्तः
सेन्द्रियोऽपि निरिन्द्रियः।
सुबुद्धिरपि निर्बुद्धिः
साहंकारोऽनहङ्कृतिः॥१८- ९५॥
धीर पुरुष चिन्तावान होने पर भी चिंतारहित होता है, इन्द्रिय युक्त होने पर भी इन्द्रिय रहित होता है, बुद्धि युक्त होने पर भी बुद्धि रहित होता है और अहंकार सहित होने पर भी अहंकार रहित होता है ॥९५॥The seer is without thoughts even when thinking, without senses among the senses, without understanding even in understanding and without a sense of responsibility even in the ego . ॥ 95 ॥
न सुखी न च वा दुःखी
न विरक्तो न संगवान्।
न मुमुक्षुर्न वा मुक्ता
न किंचिन्न्न च किंचन॥१८- ९६॥
धीर पुरुष न सुखी होता है और न दुखी, न विरक्त होता है और न अनुरक्त । वह न मुमुक्षु है और न मुक्त । वह कुछ नहीं है, कुछ नहीं है ॥९६॥




A man with tranquil mind is n either happy nor unhappy, neither detached nor attached. He is neither seeking liberation nor liberated. He is nothing of these, nothing of these . ॥ 96 ॥
विक्षेपेऽपि न विक्षिप्तः
समाधौ न समाधिमान्।
जाड्येऽपि न जडो धन्यः
पाण्डित्येऽपि न पण्डितः॥१८- ९७॥
धीर पुरुष विक्षेप में विक्षिप्त नहीं होता, समाधि में समाधिस्थ नहीं होता । उसकी लौकिक जड़ता में वह जड़ नहीं है और पांडित्य में पंडित नहीं है ॥९७॥A man with tranquil mind does n ot get distracted by disturbances, in meditation  he does not meditate. A blessed man neither gains stupidity by his worldly acts, nor does he gets wisdom . ॥ 97 ॥
मुक्तो यथास्थितिस्वस्थः
कृतकर्तव्यनिर्वृतः।
समः सर्वत्र वैतृष्ण्यान्न
स्मरत्यकृतं कृतम्॥१८- ९८॥
धीर पुरुष सभी स्थितियों में अपने स्वरुप में स्थित रहता है । कर्तव्य रहित होने से शांत होता है । सदा समान रहता है । तृष्णा रहित होने के कारण वह क्या किया और क्या नहीं – इन बातों का स्मरण नहीं करता ॥९८॥A man with tranquil mind remains established in his self. Being without any duty, he is at peace. He is always the same.As he is without greed, he does not recall what he has done or not done . ॥ 98 ॥
न प्रीयते वन्द्यमानो
निन्द्यमानो न कुप्यति।
नैवोद्विजति मरणे
जीवने नाभिनन्दति॥१८- ९९॥
वंदना करने से वह प्रसन्न नहीं होता, निंदा करने से क्रोधित नहीं होता । मृत्यु से उद्वेग नहीं करता और जीवन का अभिनन्दन नहीं करता ॥९९॥He is neither pleased when praised nor gets upset when blamed. He is neither afraid of death nor attached to life . ॥ 99 ॥
न धावति जनाकीर्णं
नारण्यं उपशान्तधीः।
यथातथा यत्रतत्र
सम एवावतिष्ठते॥१८- १००॥
शांत बुद्धि वाला धीर न तो जनसमूह की ओर दौड़ता है और न वन की ओर । वह जहाँ जिस स्थिति में होता है, वहां ही समचित्त से आसीन रहता है ॥१००॥A man at peace does not run off to popular resorts or to the forest. Wherever, he remains in whatever condition he exists with a tranquil mind. ॥ 100 ॥
See also  Ashtavakra Gita | अष्टावक्र गीता - Eighth Chapter | अष्टम अध्याय

अचार्य अभय शर्मा

अचार्य अभय शर्मा एक अनुभवी वेदांताचार्य और योगी हैं, जिन्होंने 25 वर्षों से अधिक समय तक भारतीय आध्यात्मिकता का गहन अध्ययन और अभ्यास किया है। वेद, उपनिषद, और भगवद्गीता के विद्वान होने के साथ-साथ, अचार्य जी ने योग और ध्यान के माध्यम से आत्म-साक्षात्कार की राह दिखाने का कार्य किया है। उनके लेखन में भारतीय संस्कृति, योग, और वेदांत के सिद्धांतों की सरल व्याख्या मिलती है, जो साधारण लोगों को भी गहरे आध्यात्मिक अनुभव का मार्ग प्रदान करती है।

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