अष्टावक्र गीता(मूल संस्कृत) | अष्टावक्र गीता (हिंदी भावानुवाद) | Ashtavakra Gita (English) |
---|---|---|
जनक उवाच – मय्यनंतमहांभोधौ विश्वपोत इतस्ततः। भ्रमति स्वांतवातेन न ममास्त्यसहिष्णुता॥७- १॥ | राजा जनक कहते हैं – मुझ अनंत महासागर में विश्व रूपी जहाज अपनी अन्तः वायु से इधर – उधर घूमता है पर इससे मुझमें विक्षोभ नहीं होता है ॥१॥ | King Janaka says: In infinite ocean of myself, world wanders here and there like a ship driven by its own wind. But it does not create turbulence in me. ॥1॥ |
मय्यनंतमहांभोधौ जगद्वीचिः स्वभावतः। उदेतु वास्तमायातु न मे वृद्धिर्न च क्षतिः॥७- २॥ | मुझ अनंत महासागर में विश्व रूपी लहरें माया से स्वयं ही उदित और अस्त होती रहती हैं, इससे मुझमें वृद्धि या क्षति नहीं होती है ॥२॥ | In infinite ocean of myself, world rises and vanishes naturally like a wave by ‘Maya’. But it does not cause any growth or damage to me. ॥2॥ |
मय्यनंतमहांभोधौ विश्वं नाम विकल्पना। अतिशांतो निराकार एतदेवाहमास्थितः॥७- ३॥ | मुझ अनंत महासागर में विश्व एक अवास्तविकता (स्वप्न) है, मैं अति शांत और निराकार रूप से स्थित हूँ ॥३॥ | In infinite ocean of myself, world exists like a dream. But I exist as supremely peaceful and formless. ॥3॥ |
नात्मा भावेषु नो भावस्- तत्रानन्ते निरंजने। इत्यसक्तोऽस्पृहः शान्त एतदेवाहमा स्थितः ॥७- ४॥ | उस अनंत और निरंजन अवस्था में न ‘मैं’ का भाव है और न कोई अन्य भाव ही, इस प्रकार असक्त, बिना किसी इच्छा के और शांत रूप से मैं स्थित हूँ ॥४॥ | In that infinite and stainless state, there remains no feeling of ‘I’ or any other feeling. Like this I exist, unattached, devoid of desires and at peace. ॥4॥ |
अहो चिन्मात्रमेवाहं इन्द्रजालोपमं जगत्। अतो मम कथं कुत्र हेयोपादेयकल्पना॥७- ५॥ | आश्चर्य मैं शुद्ध चैतन्य हूँ और यह जगत असत्य जादू के समान है, इस प्रकार मुझमें कहाँ और कैसे अच्छे (उपयोगी) और बुरे (अनुपयोगी) की कल्पना ॥५॥ | Surprise, I am pure consciousness and the world is like a magic. How can there be thoughts of useful and useless in me? ॥5॥ |