अष्टावक्र गीता(मूल संस्कृत) | अष्टावक्र गीता(हिंदी भावानुवाद) | Ashtavakra Gita (English) |
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अष्टावक्र उवाच – आचक्ष्व शृणु वा तात नानाशास्त्राण्यनेकशः। तथापि न तव स्वास्थ्यं सर्वविस्मरणाद् ऋते॥१६- १॥ | श्री अष्टावक्र कहते हैं – हे प्रिय, विद्वानों से सुनकर अथवा बहुत शास्त्रों के पढ़ने से तुम्हारी आत्म स्वरुप में वैसी स्थिति नहीं होगी जैसी कि सब कुछ उचित रीति से भूल जाने से ॥१॥ | Sri Ashtavakra says – O dear! Even after hearing from many scholars or reading many scriptures, you will not be established in self as after forgetting every single thing. ॥1॥ |
भोगं कर्म समाधिं वा कुरु विज्ञ तथापि ते। चित्तं निरस्तसर्वा शा म- त्यर्थं रोचयिष्यति॥१६- २॥ | कर्म भोग करो या समाधि में रहो पर चूँकि तुम विद्वान हो अतः तुम्हें चित्त की सभी आशाओं को शांत करना अत्यंत आनंदप्रद होगा ॥२॥ | You can either enjoy fruits of your action or enjoy meditative state. Since you are knowledgeable, stopping all desires of your mind will give you more pleasure. ॥2॥ |
आयासात्सकलो दुःखी नैनं जानाति कश्चन। अनेनैवोपदेशेन धन्यः प्राप्नोति निर्वृतिम्॥१६- ३॥ | प्रयत्न से ही सभी दुखी हैं पर कोई इसे जानता नहीं है । इस निष्पाप उपदेश से ही भाग्यवान व्यक्ति सभी वृत्तियों से रहित हो जाते हैं ॥३॥ | It is effort which is cause of everyone’s pain but nobody knows it. By following just this flawless instruction, fortunate become free from all their instincts. ॥3॥ |
व्यापारे खिद्यते यस्तु निमेषोन्मेषयोरपि। तस्यालस्य धुरीणस्य सुखं नन्यस्य कस्यचित्॥१६- ४॥ | जिसको पलकों का खोलना और बंद करना भी कार्य लगता है उस परम आलसी के लिए ही सुख है अन्य किसी के लिए किसी भी प्रकार से नहीं ॥४॥ | Happiness is there only for an extremely lazy person who considers blinking of eyes also a task. Nobody else is happy. ॥4॥ |
इदं कृतमिदं नेति द्वंद्वैर्मुक्तं यदा मनः। धर्मार्थकाममोक्षेषु निरपेक्षं तदा भवेत्॥१६- ५॥ | यह करना चाहिए और यह नहीं जब मन इस प्रकार के द्वंद्वों से से मुक्त हो जाता है तब उसको धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की अपेक्षा (इच्छा) नहीं रहती ॥५॥ | When mind is free from confusion of doing and not doing, it does not desire righteousness, wealth, sex or liberation. ॥5॥ |
विरक्तो विषयद्वेष्टा रागी विषयलोलुपः। ग्रहमोक्षविहीनस्तु न विरक्तो न रागवान्॥१६- ६॥ | न विषयों से द्वेष करने वाला विरक्त, न ही विषयों में आसक्त रागवान, वह तो निश्चय ही विषयों के ग्रहण और त्याग से विहीन है ॥६॥ | Neither he is averse to senses or is attached to them but he is definitely indifferent to their acceptance and rejection. ॥6॥ |
हेयोपादेयता तावत्- संसारविटपांकुरः। स्पृहा जीवति यावद् वै निर्विचारदशास्पदम्॥१६- ७॥ | जब तक (विषयों के) ग्रहण और त्याग की कामना रहती है तब तक संसार रूपी वृक्ष का अंकुर विद्यमान है, अतः विचारहीन अवस्था का आश्रय लो ॥७॥ | As long as there is thought of acceptance and rejection of senses, seed of this world-tree exists. So, take shelter in thoughtlessness. ॥7॥ |
प्रवृत्तौ जायते रागो निर्वृत्तौ द्वेष एव हि। निर्द्वन्द्वो बालवद् धीमान् एवमेव व्यवस्थितः॥१६- ८॥ | प्रवृत्ति से आसक्ति और निवृत्ति से द्वेष उत्पन्न होता है अतः बुद्धिमान, बालक के समान निर्द्वंद्व होकर स्थित रहे ॥८॥ | Habit gives rise to attachment and rejection brings aversion. So, an intelligent person should stay indifferent like a child. ॥8॥ |
हातुमिच्छति संसारं रागी दुःखजिहासया। वीतरागो हि निर्दुःखस्- तस्मिन्नपि न खिद्यति॥१६- ९॥ | विषय में आसक्त पुरुष दुःख से बचने के लिए संसार का त्याग करना चाहता है पर वह विरक्त ही सुखी है जो उन दुखों में भी खेद नहीं करता है ॥९॥ | A person who is attached to senses wants to leave this world to avoid the problems. But the one who is indifferent to these problems does not feel pain. ॥9॥ |
यस्याभिमानो मोक्षेऽपि देहेऽपि ममता तथा। न च ज्ञानी न वा योगी केवलं दुःखभागसौ॥१६- १०॥ | जो मोक्ष भी चाहता है और इस शरीर में आसक्ति भी रखता है, वह न ज्ञानी है और न योगी बल्कि केवल दुःख को प्राप्त करने वाला है ॥१०॥ | One who wants liberation and is also attached to his body, is neither knowledgeable nor yogi. He just suffers. ॥10॥ |
हरो यद्युपदेष्टा ते हरिः कमलजोऽपि वा। तथापि न तव स्वाथ्यं सर्वविस्मरणादृते॥१६- ११॥ | यदि तुम्हारे उपदेशक साक्षात् शिव, विष्णु या ब्रह्मा भी हों तो भी सब कुछ विस्मरण किये बिना तुम आत्म स्वरुप को प्राप्त नहीं होगे ॥११॥ | Unless you forget everything else, you will not be established in self, even though Shiva, Vishnu or Brahma themselves teach you. ॥11॥ |
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