अष्टावक्र गीता(मूल संस्कृत) | अष्टावक्र गीता (हिंदी भावानुवाद) | Ashtavakra Gita (English) |
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अष्टावक्र उवाच – विहाय वैरिणं कामम- र्थं चानर्थसंकुलं। धर्ममप्येतयोर्हेतुं सर्वत्रा ना दरं कुरु॥१०- १॥ | श्री अष्टावक्र कहते हैं – कामना और अनर्थों के समूह धन रूपी शत्रुओं को त्याग दो , इन दोनों के त्याग रूपी धर्म से युक्त होकर सर्वत्र विरक्त (उदासीन) हो जाओ॥१॥ | Sri Ashtavakra says – Give up the enemies, desires and money, the primary cause of many misfortunes. Rejecting these two will lead to righteousness and thus be indifferent to everything. ॥ 1॥ |
स्वप्नेन्द्रजालवत् पश्य दिनानि त्रीणि पंच वा। मित्रक्षेत्रधनागार- दारदायादिसंपदः॥१०- २॥ | मित्र, जमीन, कोषागार, पत्नी और अन्य संपत्तियों को स्वप्न की माया के समान तीन या पाँच दिनों में नष्ट होने वाला देखो॥२॥ | L ook at friends, land, money, wife and other properties as a dream in Maya to be destroyed in three to five days. ॥ 2॥ |
यत्र यत्र भवेत्तृष्णा संसारं विद्धि तत्र वै। प्रौढवैराग्यमाश्रित्य वीततृष्णः सुखी भव॥१०- ३॥ | जहाँ जहाँ आसक्ति हो उसको ही संसार जानो, इस प्रकार परिपक्व वैराग्य के आश्रय में तृष्णारहित होकर सुखी हो जाओ॥३॥ | Wherever there is attachment, there is world! Applying this mature non-attachment be free of desires and attain happiness. ॥ 3॥ |
तृष्णामात्रात्मको बन्धस्- तन्नाशो मोक्ष उच्यते। भवासंसक्तिमात्रेण प्राप्तितुष्टिर्मुहुर्मुहुः॥१०- ४॥ | तृष्णा (कामना) मात्र ही स्वयं का बंधन है, उसके नाश को मोक्ष कहा जाता है । संसार में अनासक्ति से ही निरंतर आनंद की प्राप्ति होती है ॥४॥ | Desires alone are the bondage for Self. Extinguishing desires is called liberation. Non-attachment to worldly things can only lead to continuous bliss. ॥ 4॥ |
त्वमेकश्चेतनः शुद्धो जडं विश्वमसत्तथा। अविद्यापि न किंचित्सा का बुभुत्सा तथापि ते॥१०- ५॥ | तुम एक(अद्वितीय), चेतन और शुद्ध हो तथा यह विश्व अचेतन और असत्य है । तुममें अज्ञान का लेश मात्र भी नहीं है और जानने की इच्छा भी नहीं है ॥५॥ | You are one (without a second), conscious and pure and this world is non-conscious and illusory. You don’t have a trace of ignorance and desire to know. ॥ 5॥ |
राज्यं सुताः कलत्राणि शरीराणि सुखानि च। संसक्तस्यापि नष्टानि तव जन्मनि जन्मनि॥१०- ६॥ | पूर्व जन्मों में बहुत बार तुम्हारे राज्य, पुत्र, स्त्री, शरीर और सुखों का, तुम्हारी आसक्ति होने पर भी नाश हो चुका है ॥६॥ | In past lives, many times your kingdoms, children, wives, bodies and comforts have destroyed despite of your attachment to them. ॥ 6॥ |
अलमर्थेन कामेन सुकृतेनापि कर्मणा। एभ्यः संसारकान्तारे न विश्रान्तमभून् मनः॥१०- ७॥ | पर्याप्त धन, इच्छाओं और शुभ कर्मों द्वारा भी इस संसार रूपी माया से मन को शांति नहीं मिली ॥ ७ ॥ | Any amount of wealth, desires and good deeds will not result in peace from this world of illusion. ॥ 7॥ |
कृतं न कति जन्मानि कायेन मनसा गिरा। दुःखमायासदं कर्म तदद्याप्युपरम्यताम्॥१०- ८॥ | कितने जन्मों में शरीर, मन और वाणी से दुःख के कारण कर्मों को तुमने नहीं किया? अब उनसे उपरत (विरक्त) हो जाओ ॥ ८ ॥ | In how many lives have you not taken pain in performing various activities with body, mind and speech. Now be non-attached to them. ॥ 8॥ |
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