Twelfth Chapter द्वादश अध्याय

Ashtavakra Gita | अष्टावक्र गीता – Tenth Chapter | दशम अध्याय

अष्टावक्र गीता(मूल संस्कृत)अष्टावक्र गीता (हिंदी भावानुवाद)Ashtavakra Gita (English)
अष्टावक्र उवाच –
विहाय वैरिणं कामम-
र्थं चानर्थसंकुलं।
धर्ममप्येतयोर्हेतुं
सर्वत्रा
ना दरं कुरु॥१०- १॥
श्री अष्टावक्र कहते हैं –  कामना और अनर्थों के समूह धन रूपी शत्रुओं को त्याग दो , इन दोनों के त्याग रूपी धर्म से युक्त होकर सर्वत्र विरक्त (उदासीन) हो जाओ॥१॥Sri Ashtavakra says – Give up the enemies, desires and money, the primary cause of many misfortunes. Rejecting these two will lead to righteousness and thus be indifferent to everything. 1॥
स्वप्नेन्द्रजालवत् पश्य
दिनानि त्रीणि पंच वा।
मित्रक्षेत्रधनागार-
दारदायादिसंपदः॥१०- २॥
मित्र, जमीन, कोषागार, पत्नी और अन्य संपत्तियों को स्वप्न की माया के समान तीन या पाँच दिनों में नष्ट होने वाला देखो॥२॥L ook at friends, land, money, wife and other properties as a dream in Maya to be destroyed in three to five days. 2॥
यत्र यत्र भवेत्तृष्णा
संसारं विद्धि तत्र वै।
प्रौढवैराग्यमाश्रित्य
वीततृष्णः सुखी भव॥१०- ३॥
जहाँ जहाँ आसक्ति हो उसको ही संसार जानो, इस प्रकार परिपक्व वैराग्य के आश्रय में तृष्णारहित होकर सुखी हो जाओ॥३॥Wherever there is attachment, there is world! Applying this mature non-attachment be free of desires and attain happiness. 3॥
तृष्णामात्रात्मको बन्धस्-
तन्नाशो मोक्ष उच्यते।
भवासंसक्तिमात्रेण प्राप्तितुष्टिर्मुहुर्मुहुः॥१०- ४॥
तृष्णा (कामना) मात्र ही स्वयं का बंधन है, उसके नाश को  मोक्ष कहा जाता है । संसार में अनासक्ति से ही निरंतर आनंद की प्राप्ति होती है ॥४॥Desires alone are the bondage for Self. Extinguishing desires is called liberation. Non-attachment to worldly things can only lead to continuous bliss. 4॥
त्वमेकश्चेतनः शुद्धो
जडं विश्वमसत्तथा।
अविद्यापि न किंचित्सा
का बुभुत्सा तथापि ते॥१०- ५॥
तुम एक(अद्वितीय), चेतन और शुद्ध हो तथा यह विश्व अचेतन और असत्य है । तुममें अज्ञान का लेश मात्र भी नहीं है और जानने की इच्छा भी नहीं है ॥५॥You are one (without a second), conscious and pure and this world is non-conscious and illusory. You don’t have a trace of ignorance and desire to know. 5॥
राज्यं सुताः कलत्राणि
शरीराणि सुखानि च।
संसक्तस्यापि नष्टानि
तव जन्मनि जन्मनि॥१०- ६॥
पूर्व जन्मों में बहुत बार तुम्हारे राज्य, पुत्र, स्त्री, शरीर और सुखों का, तुम्हारी आसक्ति होने पर भी नाश हो चुका है ॥६॥  In past lives, many times your kingdoms, children, wives, bodies and comforts have destroyed despite of your attachment to them. 6॥
अलमर्थेन कामेन
सुकृतेनापि कर्मणा।
एभ्यः संसारकान्तारे
न विश्रान्तमभून् मनः॥१०- ७॥
पर्याप्त धन, इच्छाओं और शुभ कर्मों द्वारा भी इस संसार रूपी माया से मन को शांति नहीं मिली ॥ Any amount of wealth, desires and good deeds will not result in peace from this world of illusion. 7॥
कृतं न कति जन्मानि
कायेन मनसा गिरा।
दुःखमायासदं कर्म
तदद्याप्युपरम्यताम्॥१०- ८॥
कितने जन्मों में शरीर, मन और वाणी से दुःख के कारण कर्मों को तुमने नहीं किया? अब उनसे उपरत (विरक्त) हो जाओ ॥    In how many lives have you not taken pain in performing various activities with body, mind and speech. Now be non-attached to them. 8॥
See also  Ashtavakra Gita | अष्टावक्र गीता - Thirteenth Chapter | त्रयोदश अध्याय

अचार्य अभय शर्मा

अचार्य अभय शर्मा एक अनुभवी वेदांताचार्य और योगी हैं, जिन्होंने 25 वर्षों से अधिक समय तक भारतीय आध्यात्मिकता का गहन अध्ययन और अभ्यास किया है। वेद, उपनिषद, और भगवद्गीता के विद्वान होने के साथ-साथ, अचार्य जी ने योग और ध्यान के माध्यम से आत्म-साक्षात्कार की राह दिखाने का कार्य किया है। उनके लेखन में भारतीय संस्कृति, योग, और वेदांत के सिद्धांतों की सरल व्याख्या मिलती है, जो साधारण लोगों को भी गहरे आध्यात्मिक अनुभव का मार्ग प्रदान करती है।

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