Connect with us

Blog

भीष्म पितामह का मौन: क्या था द्रौपदी के चीर हरण के समय मौन रहने का वास्तविक कारण?

Published

on

महाभारत में द्रौपदी चीर हरण और भीष्म पितामह का मौन

जब हम महाभारत की बात करते हैं, तो उसमें कई महान योद्धाओं और चरित्रों की कथाएं जुड़ी हैं। लेकिन एक घटना जो आज भी हमारे मन में सवाल खड़े करती है, वह है द्रौपदी के चीर हरण के समय भीष्म पितामह का मौन। वह युद्ध और धर्म के आदर्श माने जाते थे, तो फिर उन्होंने द्रौपदी के साथ हो रहे अन्याय पर कुछ क्यों नहीं कहा? आइए इस लेख में जानें भीष्म पितामह के इस मौन का आध्यात्मिक और नैतिक कारण, जो हर भारतीय के मन में गहरे सवाल खड़े करता है।

भीष्म पितामह का संकल्प और धर्म का पालन

भीष्म पितामह महाभारत के उन महान पात्रों में से थे जिन्होंने जीवनभर अपने धर्म का पालन किया। उन्होंने अपने पिता के लिए आजीवन ब्रह्मचर्य और हस्तिनापुर की सेवा का व्रत लिया था। उनकी निष्ठा और संकल्प उन्हें एक महान योद्धा और आदर्श पुरुष के रूप में स्थापित करती है। हालांकि, जब द्रौपदी के चीर हरण का समय आया, तो उन्होंने कुछ क्यों नहीं किया, यह सवाल आज भी लोगों को परेशान करता है।

भीष्म का यह मौन केवल उनकी व्यक्तिगत निष्ठा या दायित्वों का प्रश्न नहीं था, बल्कि यह धर्म के उन पेचीदा नियमों का भी प्रतिनिधित्व करता है जो महाभारत में हर पात्र का मार्गदर्शन करते थे। धर्म की यही जटिलता भीष्म को दुविधा में डाल देती है, जहां वह अपने संकल्प, निष्ठा और हस्तिनापुर के राजा के प्रति अपनी सेवा में बंधे थे।

Advertisement

धर्म और सत्ता का द्वंद्व

महाभारत के समय समाज में धर्म और सत्ता का बहुत बड़ा महत्व था। हस्तिनापुर के राजवंश में सत्ता के लिए होने वाले संघर्षों ने हर एक योद्धा को किसी न किसी दुविधा में डाल दिया था। भीष्म पितामह ने हस्तिनापुर के प्रति अपनी निष्ठा के कारण चुप रहना उचित समझा। यह एक गंभीर प्रश्न उठाता है कि क्या सत्ता के प्रति निष्ठा धर्म से भी ऊपर होती है?

भीष्म ने अपने जीवन का संकल्प लिया था कि वह कभी हस्तिनापुर के विरुद्ध नहीं जाएंगे, चाहे परिस्थिति कैसी भी हो। यह वचन उनके लिए धर्म से भी महत्वपूर्ण हो गया था। इसी कारण, जब द्रौपदी का चीर हरण हो रहा था, वह मौन रहे क्योंकि उनके लिए धर्म और उनके संकल्प के बीच चुनाव करना कठिन हो गया था।

न्याय की मर्यादा और कर्तव्यों की सीमा

भीष्म पितामह का धर्म केवल हस्तिनापुर के सिंहासन के प्रति था। दुर्योधन और उनके भाइयों द्वारा किए गए कुकर्मों के बावजूद भी, उन्होंने अपने कर्तव्यों का पालन किया और सत्ता के प्रति वफादार बने रहे। यह घटना यह सवाल खड़ा करती है कि क्या एक महान योद्धा के लिए अपने कर्तव्यों का पालन करना अधिक महत्वपूर्ण है, या फिर अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाना?

Advertisement

द्रौपदी के चीर हरण के समय भीष्म की चुप्पी ने यही सवाल हमारे समाज के सामने रखे हैं। यह घटना दर्शाती है कि धर्म के नाम पर भी कभी-कभी व्यक्ति को ऐसे फैसले लेने पड़ते हैं जो नैतिकता से परे होते हैं।

आध्यात्मिक दृष्टिकोण से भीष्म का मौन

आध्यात्मिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो भीष्म पितामह का मौन एक गहरी समझ का प्रतीक हो सकता है। वह जानते थे कि महाभारत की इस घटना के पीछे कुछ बड़ा होने वाला है। उनके मौन में छिपी हुई यह बात थी कि आने वाले समय में अधर्म के खिलाफ एक बड़ा युद्ध होगा और द्रौपदी के इस अपमान से महाभारत की नींव रखी जाएगी। कई विद्वानों का मानना है कि भीष्म का मौन सिर्फ उनकी विवशता नहीं थी, बल्कि यह उनके गहरे आध्यात्मिक दृष्टिकोण का संकेत था।

भीष्म पितामह और महाभारत का संदेश

महाभारत की इस घटना से हमें यह सीख मिलती है कि किसी भी परिस्थिति में धर्म और नैतिकता के बीच संतुलन बनाना आसान नहीं होता। भीष्म पितामह ने अपने जीवन में धर्म के अनेक रूपों का पालन किया, लेकिन द्रौपदी के चीर हरण के समय उनकी चुप्पी आज भी हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि धर्म के नियमों के चलते कभी-कभी हम असत्य और अन्याय के खिलाफ आवाज नहीं उठा पाते।

Advertisement

इस घटना का सबसे बड़ा संदेश यही है कि सत्ता, धर्म, और नैतिकता के बीच संतुलन बनाना ही सबसे कठिन काम है, और इसमें कई बार इंसान को अपने आदर्शों से भी समझौता करना पड़ता है। भीष्म पितामह का मौन यही सिखाता है कि जीवन में कई बार हम अपनी मर्यादा और कर्तव्यों के बीच फंस जाते हैं, जहां हर चुनाव सही और गलत के बीच का नहीं होता, बल्कि यह चुनाव हमारी अपनी अंतरात्मा से जुड़ा होता है।

निष्कर्ष

भीष्म पितामह का द्रौपदी के चीर हरण के समय मौन रहना उनके जीवन के सबसे विवादास्पद फैसलों में से एक था। यह न केवल उनके जीवन के कठिन चुनावों को दर्शाता है, बल्कि हमें यह भी सिखाता है कि कभी-कभी जीवन में हम धर्म, निष्ठा और कर्तव्यों के बीच ऐसे निर्णय लेने को मजबूर हो जाते हैं, जो हमें भीतर से भी तोड़ सकते हैं। महाभारत की यह घटना आज भी हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि न्याय और धर्म के बीच संतुलन बनाना कितना मुश्किल होता है।

Advertisement

अचार्य अभय शर्मा एक अनुभवी वेदांताचार्य और योगी हैं, जिन्होंने 25 वर्षों से अधिक समय तक भारतीय आध्यात्मिकता का गहन अध्ययन और अभ्यास किया है। वेद, उपनिषद, और भगवद्गीता के विद्वान होने के साथ-साथ, अचार्य जी ने योग और ध्यान के माध्यम से आत्म-साक्षात्कार की राह दिखाने का कार्य किया है। उनके लेखन में भारतीय संस्कृति, योग, और वेदांत के सिद्धांतों की सरल व्याख्या मिलती है, जो साधारण लोगों को भी गहरे आध्यात्मिक अनुभव का मार्ग प्रदान करती है।

Continue Reading
Advertisement
Click to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Exit mobile version