छत्रपति संभाजी महाराज: वीरता, साहित्य और त्याग की अमर गाथा
प्रस्तावना
मराठा साम्राज्य के इतिहास में छत्रपति संभाजी महाराज का नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखा गया है। वे न केवल महान छत्रपति शिवाजी महाराज के पुत्र थे, बल्कि एक कुशल योद्धा, रणनीतिकार, साहित्यकार और अपने धर्म के प्रति समर्पित शासक भी थे। आइए, उनके जीवन की यात्रा पर एक विस्तृत नज़र डालें और जानें कि कैसे उन्होंने मराठा इतिहास को आकार दिया।
प्रारंभिक जीवन और शिक्षा
संभाजी महाराज का जन्म 14 मई, 1657 को पुरंदर किले में हुआ था
वे छत्रपति शिवाजी महाराज और उनकी पहली पत्नी साईबाई के ज्येष्ठ पुत्र थे। मात्र दो वर्ष की आयु में अपनी माता के निधन के बाद, संभाजी का पालन-पोषण उनकी दादी जीजाबाई ने किया
जीजाबाई ने उनके चरित्र निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।शिवाजी महाराज ने स्वयं संभाजी की शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया। उन्होंने सुनिश्चित किया कि संभाजी विभिन्न विषयों में पारंगत हों, जिसमें युद्ध कला, राजनीति, कूटनीति और भाषाएँ शामिल थीं
संभाजी संस्कृत, मराठी और हिंदी भाषाओं में विशेष रूप से प्रवीण थे
यह व्यापक शिक्षा उन्हें एक कुशल शासक और सेनापति बनने में सहायक सिद्ध हुई।
राजनीतिक बंधक और प्रारंभिक चुनौतियां
संभाजी के जीवन में एक महत्वपूर्ण मोड़ तब आया जब वे मात्र नौ वर्ष के थे। 1665 में, पुरंदर की संधि के तहत, उन्हें आमेर के राजा जय सिंह प्रथम के महल में राजनीतिक बंधक के रूप में भेजा गया
यह अनुभव उनके लिए चुनौतीपूर्ण रहा, लेकिन इसने उन्हें मुगल दरबार की कार्यप्रणाली और राजनीति का प्रत्यक्ष अनुभव दिया।इस अवधि के दौरान, संभाजी को मुगलों का मनसबदार बनाया गया। 1666 में, उन्होंने अपने पिता के साथ मुगल दरबार में भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। हालांकि, यह यात्रा विवादास्पद रही, क्योंकि बाद में दोनों को सम्राट औरंगजेब द्वारा नजरबंद कर दिया गया, जिससे वे बाद में बच निकले। यह घटना संभाजी के जीवन में एक महत्वपूर्ण अनुभव थी, जिसने उनके मुगलों के प्रति दृष्टिकोण को आकार दिया।
विवाह और परिवार
संभाजी का विवाह कम उम्र में ही येसूबाई से हुआ, जो ताल-कोंकणी क्षेत्र के देशमुख परिवार से पिलाजी राव शिरके की पुत्री थीं
यह विवाह शिवाजी द्वारा राजनीतिक गठबंधन को मजबूत करने के लिए रणनीतिक रूप से तय किया गया था। इस विवाह ने कोंकण क्षेत्र में मराठा साम्राज्य के प्रभाव को बढ़ाया।
उत्तराधिकार के लिए संघर्ष
अप्रैल 1680 में शिवाजी की मृत्यु के बाद, संभाजी को उत्तराधिकारी के रूप में अपनी स्थिति सुरक्षित करने में एक महत्वपूर्ण चुनौती का सामना करना पड़ा। उनकी सौतेली मां, सोयराबाई ने अपने पुत्र, राजाराम को सिंहासन पर बैठाने का प्रयास किया। यह घटना मराठा दरबार में गहरे विभाजन का कारण बनी।हालांकि, संभाजी ने अपनी रणनीतिक क्षमता का प्रदर्शन करते हुए प्रमुख किलों पर नियंत्रण हासिल कर लिया। उन्होंने अपने समर्थकों को एकजुट किया और 20 जुलाई, 1680 को छत्रपति के रूप में ताजपोशी की गई। यह घटना उनके शासनकाल की शुरुआत का प्रतीक थी और उन्होंने मराठा साम्राज्य के दूसरे शासक के रूप में अपनी भूमिका संभाली।
शासनकाल और सैन्य अभियान
संभाजी का शासनकाल मुगलों, सिद्दियों और पुर्तगालियों के खिलाफ लगातार सैन्य अभियानों से चिह्नित था। उनकी सैन्य रणनीतियाँ उनके पिता द्वारा विकसित गुरिल्ला युद्ध तकनीकों पर आधारित थीं, जिन्हें उन्होंने और परिष्कृत किया
प्रमुख सैन्य अभियान:
- बुरहानपुर का आक्रमण (1681): संभाजी को बुरहानपुर, एक समृद्ध मुगल शहर पर रणनीतिक हमले के लिए जाना जाता है 10। यह आक्रमण दक्कन में मुगल विस्तार योजनाओं के लिए एक महत्वपूर्ण झटका था और मराठा खजाने को भी समृद्ध किया।
- रामसेज का घेरा (1682-1688): यह लंबा घेरा संभाजी के नेतृत्व में मराठा सेनाओं की दृढ़ता का प्रमाण था। कम संख्या में होने के बावजूद, मराठाओं ने कई वर्षों तक मुगल सेनाओं के खिलाफ किले को बचाए रखा, नवीन रक्षात्मक रणनीतियों का उपयोग करते हुए।
- पुर्तगालियों के खिलाफ अभियान: संभाजी ने गोवा में पुर्तगाली औपनिवेशिक शासन का विरोध किया, मुख्य रूप से स्थानीय मामलों में उनके हस्तक्षेप और जबरन धर्म परिवर्तन के कारण 11। उन्होंने भारत के पश्चिमी तट पर पुर्तगाली प्रभाव को कम करने के लिए सैन्य अभियान शुरू किए।
- जंजीरा के सिद्दियों के खिलाफ संघर्ष: सिद्दी, जो मुगलों द्वारा समर्थित थे, मराठा तटीय सुरक्षा के लिए एक लगातार खतरा थे। संभाजी ने जंजीरा किले पर कब्जा करने के कई प्रयास किए 12। हालांकि वे सिद्दियों को पूरी तरह से हरा नहीं सके, उनके निरंतर प्रयासों ने भविष्य में मराठा नौसेना के प्रभुत्व की नींव रखी।
- दक्षिण में अभियान: संभाजी ने मैसूर और तमिल क्षेत्र में मराठा प्रभाव का विस्तार करने का प्रयास किया 13। इन प्रयासों ने महाराष्ट्र से परे मराठा सैन्य उपस्थिति को मजबूत किया।
सैन्य रणनीतियाँ:
- गुरिल्ला युद्ध: संभाजी ने गुरिल्ला युद्ध तकनीकों का प्रभावी उपयोग किया, जिसमें छोटी, गतिशील इकाइयाँ शामिल थीं जो तेजी से हमला कर सकती थीं और दुश्मन के प्रभावी ढंग से जवाब देने से पहले पीछे हट सकती थीं।
- किलेबंदी और रक्षा: उन्होंने किलों के सामरिक महत्व को पहचानते हुए, दुर्गों के किलेबंदी में निवेश किया, जो प्रमुख क्षेत्रों पर नियंत्रण बनाए रखने और मुगल अग्रिमों का विरोध करने में महत्वपूर्ण थे।
- नौसैनिक कार्रवाइयाँ: हालांकि उनके भूमि अभियानों की तुलना में कम सफल, संभाजी के नौसेना निर्माण के प्रयास महत्वपूर्ण थे। पश्चिमी तट पर सिद्दियों और पुर्तगालियों को चुनौती देने के उनके प्रयास मराठा समुद्री हितों को सुरक्षित करने की व्यापक रणनीति का हिस्सा थे 14।
साहित्यिक और सांस्कृतिक योगदान
संभाजी महाराज केवल एक योद्धा ही नहीं, बल्कि एक विद्वान और कला के संरक्षक भी थे। उनके साहित्यिक और सांस्कृतिक योगदान उनके बहुमुखी व्यक्तित्व को प्रदर्शित करते हैं:
- साहित्यिक रचनाएँ: संभाजी ने कई महत्वपूर्ण ग्रंथों की रचना की:
- “बुधभूषणम्” – संस्कृत में लिखा गया एक महत्वपूर्ण ग्रंथ
- “नायिकाभेद” – हिंदी में लिखी गई एक कृति
- “सातसतक” और “नखशिख” – अन्य महत्वपूर्ण रचनाएँ
- शिक्षा का प्रोत्साहन: संभाजी ने अपने मंत्रियों के साथ मिलकर सांस्कृतिक और धार्मिक गतिविधियों को बढ़ावा दिया। उन्होंने विद्वानों को भूमि, अनाज और धन देकर शिक्षा को प्रोत्साहित किया
- कला और संस्कृति का संरक्षण: अपने पिता शिवाजी की तरह, संभाजी भी कला के संरक्षक थे। उन्होंने अपने शासनकाल के दौरान कवियों, विद्वानों और कलाकारों को प्रोत्साहित किया और समर्थन दिया
- धार्मिक सहिष्णुता: संभाजी अपनी धार्मिक सहिष्णुता के लिए जाने जाते थे। उन्होंने अपने राज्य में विविध समुदायों के बीच एकता को बढ़ावा दिया और भक्ति आंदोलन का विशेष समर्थन किया
गिरफ्तारी और मृत्यु
1689 में, संभाजी को उनके अपने लोगों के विश्वासघात के कारण मुगलों द्वारा पकड़ लिया गया। उन्हें क्रूर यातनाएं दी गईं और इस्लाम धर्म अपनाने से इनकार करने के बाद 11 मार्च, 1689 को तुलापुर में उनकी मृत्यु हो गई। उनकी मृत्यु को मुगल साम्राज्य के खिलाफ मराठा प्रतिरोध को उत्तेजित करने वाला एक महत्वपूर्ण क्षण माना जाता है।
विरासत और महत्व
छत्रपति संभाजी महाराज की विरासत भारतीय इतिहास में अमिट है:
- वीरता का प्रतीक: उनकी वीरता और प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करने की दृढ़ता ने उन्हें मराठा इतिहास में एक पूजनीय स्थान दिलाया है।
- धार्मिक दृढ़ता: धर्म परिवर्तन से इनकार करना और उसके बाद उनकी शहादत ने उन्हें धार्मिक दृढ़ता का प्रतीक बना दिया।
- सैन्य नवाचार: उन्होंने अपने सैनिकों के लिए चमड़े की जैकेट जैसे नवाचारों की शुरुआत की, जो घातक तीरों से उनकी रक्षा करती थीं
- साहित्यिक योगदान: उनकी साहित्यिक रचनाएँ उनके बौद्धिक पक्ष को प्रदर्शित करती हैं और मराठी और संस्कृत साहित्य में महत्वपूर्ण योगदान देती हैं।
- मराठा साम्राज्य का विस्तार: उनके शासनकाल ने मराठा साम्राज्य के विस्तार और समेकन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
स्मारक और सम्मान
संभाजी महाराज की स्मृति में कई स्मारक और प्रतिमाएँ स्थापित की गई हैं:
- बेलगावी में शिवेंद्र राजे भोसले द्वारा अनावरण की गई संभाजी महाराज की एक प्रतिमा
- 140 फीट ऊंची एक विशाल प्रतिमा, जिसमें 40 फीट का आधार और 100 फीट की मूर्ति शामिल है
- पुणे के शिवाजीनगर में डेक्कन कॉर्नर में स्थित एक अन्य प्रतिमा ।
- रायगढ़ किले में, जहाँ शिवाजी महाराज का राज्याभिषेक हुआ था, उनके पुत्रों, जिनमें संभाजी महाराज भी शामिल हैं, की प्रतिमाएँ स्थापित हैं
- तुलापुर में संभाजी महाराज की समाधि, जो उनकी मृत्यु का ऐतिहासिक स्थल है
निष्कर्ष
छत्रपति संभाजी महाराज का जीवन वीरता, त्याग और अपने लोगों के प्रति समर्पण का एक ज्वलंत उदाहरण है। उनका शासनकाल, हालांकि छोटा था, मराठा इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ। उनकी वीरता, साहित्यिक प्रतिभा और बलिदान ने न केवल मराठा साम्राज्य को मजबूत किया, बल्कि भारतीय इतिहास के पाठ्यक्रम को भी आकार दिया।आज, हम उनके साहस, दृढ़ संकल्प और बहुमुखी प्रतिभा से प्रेरणा लेते हैं। छत्रपति संभाजी महाराज की विरासत हमें सिखाती है कि सच्चा नेतृत्व केवल शक्ति में नहीं, बल्कि चरित्र की ताकत, बौद्धिक क्षमता और अपने सिद्धांतों के प्रति अटूट प्रतिबद्धता में निहित है। उनका जीवन आज भी युवा पीढ़ी के लिए एक प्रेरणास्रोत है, जो हमें याद दिलाता है कि अपने देश, संस्कृति और मूल्यों के लिए खड़े रहने का क्या मतलब है।